लद्दाख के प्रसिद्ध शिक्षाविद और पर्यावरणविद् सोनाम वांगचुक ने 6 मार्च, 2024 को लद्दाख के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र और आदिवासी संस्कृति की रक्षा के लिए एक अनशन शुरू किया था। उन्होंने इस अनशन को "जलवायु उपवास" का नाम दिया। उन्होंने सिर्फ नमक और पानी का सेवन करते हुए कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे 21 दिन का उपवास पूरा किया। उनका यह अनशन देशभर में चर्चा का विषय बन गया।
उपवास के पीछे क्या कारण थे?
सोनाम वांगचुक लद्दाख को भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे थे। यह अनुसूची उन क्षेत्रों को विशेष दर्जा देती है जहां आदिवासी समुदायों का बाहुल्य है और उनकी संस्कृति और परंपराओं की रक्षा की आवश्यकता है। उनका मानना था कि लद्दाख के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र और संस्कृति को तेजी से बढ़ते पर्यटन और उद्योगों से खतरा है। छठी अनुसूची का दर्जा मिलने से लद्दाख को इन खतरों से बचाने में मदद मिल सकती है।
उपवास के दौरान क्या हुआ?
- पूरे देश का ध्यान आकर्षित हुआ: वांगचुक के उपवास ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया। मीडिया में उनकी मांगों को प्रमुखता से दिखाया गया और कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों ने उनके समर्थन में आवाज उठाई।
- समर्थन में प्रदर्शन: कई शहरों में लद्दाख और वांगचुक के समर्थन में प्रदर्शन हुए।
- सरकार से कोई जवाब नहीं: हालांकि, केंद्र सरकार से वांगचुक की मांगों पर कोई ठोस जवाब नहीं आया।
21 दिन बाद क्या हुआ?
21 दिन के उपवास के बाद वांगचुक की तबीयत बिगड़ने लगी। चिकित्सकों की सलाह पर 26 मार्च को उन्होंने अपना उपवास तोड़ दिया। हालांकि, उन्होंने सरकार को चेतावनी दी कि वह अपनी मांगों को लेकर संघर्ष जारी रखेंगे।
उपवास का क्या प्रभाव पड़ा?
- लद्दाख के मुद्दों पर चर्चा: वांगचुक के उपवास ने लद्दाख के जलवायु परिवर्तन, आदिवासी संस्कृति के संरक्षण और विकास जैसे मुद्दों को राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना दिया।
- सरकार पर दबाव: उनके उपवास ने केंद्र सरकार पर लद्दाख के लोगों की चिंताओं को सुनने और उनकी मांगों पर विचार करने का दबाव बनाया।
यह देखना बाकी है कि वांगचुक के उपवास का लद्दाख के भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा। लेकिन उनका यह प्रयास निश्चित रूप से लद्दाख के लोगों के अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है।